प्रेम कविताएँ - 6 / मंजरी श्रीवास्तव
जवानी में प्रेम मेरा गुरु बना
प्रौढ़ा हुई तो मददगार
और जीवन के अन्तिम पड़ाव पर बनेगा मेरी ख़ुशी ।
ज़मीन से निकलती लपटों की तरह
प्रेम निकलता है मेरे दिल की गहराइयों से
जिसमें मेरे आँसू घृत का काम करते हैं और कभी-कभी
होंठ भी बन जाते हैं ।
प्यार ने मुझे पंख दिए हैं
ऐसे पंख...जिनके सहारे मैं उड़कर जा सकती हूँ बादलों की छाया के उस पार की दुनिया में और
देख सकती हूँ, महसूस कर सकती हूँ वह जादू
जिसमें मेरी और तुम्हारी आत्मा आनन्द के साथ विचरण करती रही हैं अब तक
तमाम दुखों के बावजूद ।
मेरे अलावा शायद ही सुना हो किसी ने प्रेम का यह आह्वान
शायद ही फँसा हो कोई इस सुखद और सम्मोहक तिलिस्म में
शायद ही समझ पाया हो कोई उस अव्यक्त व्यंजना को...उस अनकही दास्तान को
जिसे शब्दों का बाना नहीं मिला और जो काग़ज़ पर उतारे नहीं जा सके ।
प्यार के रहस्यमयी सपनों की छतरी बार-बार उड़ाकर
मैं इस बारिश में भीगती रहना पसन्द करती हूँ ।
पेड़ की शाखाओं-सा बिखरा है प्रेम मेरे पोर-पोर में
जैसे पेड़ एक मज़बूत शाखा को गँवाकर दुखी तो होता है पर मरता नहीं
अपनी सारी ऊर्जा दूसरी शाखा में भर देता है ताकि वह बढ़ जाए ख़ाली जगह भर दे
वैसे ही,
एक प्रेम भरे सम्बन्ध की समाप्ति मुझे दुखी तो करती है पर मेरे दिल को ख़ाली नहीं कर पाती प्रेम से
मैं अपना प्रेम कहीं और उँडेल देती हूँ...
ज़र्रे-ज़र्रे में भर देती हूँ
ताकि उसकी शाखाएँ फ़ैल जाएँ पूरी दुनिया में ।