प्रेम कविताएँ - 9 / मंजरी श्रीवास्तव
जब पिछले साल सलेटी आसमान ने आख़िरी साँसें ली थीं
भारी बर्फ़ गिरनी शुरू हो गई थी ।
विशाल पहाड़ों पर से सीटी बजाती हुई हवाएँ गहरी खाई की ओर जा रही थीं और
बर्फ़ के बुरादों को उड़ाकर वादियों में जमा कर रही थीं ।
वादियों और खेतों में बिन पत्तों के पेड़ों के सिवा कुछ भी शेष नहीं रहा था ।
वे पेड़ जीवनहीन मैदानों में मृत्यु की काली छाया बनकर खड़े थे.
चीख़ती हुई हवाओं और गरजते तूफ़ानों की प्रतिध्वनि
गहरी वादियों से सुनी जा सकती थी ।
ऐसा लगने लगा था कि प्रकृति पिछले साल के बीत जाने पर क्रुद्ध है
और कुछ शांत आत्माओं से बदला ले रही है सर्दी और कोहरे के हथियार चलाकर ।
धरती का काला परिधान सफ़ेद हो गया था बर्फ़ से
जैसे कि मौत से पहले ही वह मौत से घिर गया हो ।
निराशा और घोर दुःख के इस मौसम में
हलकी-सी कोई उम्मीद मेरे भीतर बाक़ी थी ।
हालाँकि मेरे पंख टूट चुके थे और मैं किसी बर्फ़ीली नदी की धारा में गिर चुकी थी ।
भँवर मुझे गहराइयों में खींचे लिए जा रहा था ।
मैं धारा के ख़िलाफ़ तैर रही थी ।
हवा के विरुद्ध लड़ रही थी ।
सिर्फ़ इसलिए कि
मुझे यक़ीन था कि
मौत के इस सफ़ेद मौसम में भी
बीजों-सी दो काली पुतलियाँ अब भी तक रही हैं मेरी राह
जिनमें मौन सम्वाद करने की एक अनोखी ताक़त है
जो आत्मा की लालसाओं को ज़िन्दा रखती है ।