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प्रेम कविता / वीरेन डंगवाल

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प्यारी, बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !
अटपटे और ऊल-जुलूल
बेसर-पैर कहाँ से कहाँ तेरे बोल !

कभी पहुँच जाती है अपने बचपन में
जामुन की रपटन-भरी डालों पर
कूदती हुई फल झाड़ती
ताड़का की तरह गुत्थम-गुत्था अपने भाई से
कभी सोचती है अपने बच्चे को
भाँति-भाँति की पोशाकों में
मुदित होती है

हाई स्कूल में होमसाइंस थी
महीने में जो कहीं देख लीं तीन फ़िल्में तो धन्य ,
प्यारी
गुस्सा होती है तो जताती है अपना थक जाना
फूले मुँह से उसाँसे छोड़ती है फू-फू
कभी-कभी बताती है बच्चा पैदा करना कोई हँसी-खेल नहीं
आदमी लोग को क्या पता
गर्व और लाड़ और भय से चौड़ी करती ऑंखें
बिना मुझे छोटा बनाए हल्का-सा शर्मिन्दा कर देती है
प्यारी

दोपहर बाद अचानक उसे देखा है मैंने
कई बार चूड़ी समेत कलाई को माथे पर
अलसाए
छुप कर लेटे हुए जाने क्या सोचती है
शोक की लौ जैसी एकाग्र

यों कई शताब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी
मेरी प्यारी !