भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम का अभिप्राय / विमल कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं मागूँगा अब मैं तुमसे
अपने प्यार के बदले प्रेम !
नहीं कहूँगा
तुम मुझे अपनी मुस्कराहट से
दो मेरे लिए ख़ुशी
माँगना कुछ ठीक नहीं है
इस तरह हाथ फैलाकर
किसी के सामने
चाहे वह कोई सपना ही क्यों न हो

क्यों न वह कोई दवा जीने-मरने की
क्या चाँद ने कभी कुछ माँगा है किसी से
वह तो देता रहा है
सबको अपनी चाँदनी निस्पृह
फूल भी देते रहे हैं ख़ुशबू
बिना किसी से कोई उम्मीद किए
सूरज भी देता रहा है रोशनी
बिना कुछ चाहे मनुष्य से
तो भला मैं क्यों माँगूँ
तुमसे अपने प्यार के बदले प्रेम

देने का सुख बड़ा है
पाने के सुख से
मैं तुम्हें जो कुछ देता रहा प्रेम के रूप में
उसमें छिपी थी मेरी ही ख़ुशी

लेकिन एक बात ज़रूर कहूँगा
अगर तुम न दे सको, अपना प्रेम मुझे
तो कोई बात नहीं
पर कम से कम समझना ज़रूर
मेरा प्रेम कितना सच्चा है
प्रेम को समझना
मेरे लिए ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है
प्रेम करने से

इसलिए मैं ज़िन्दगी भर
इस बात के लिए जूझता रहा
कि मैं भी समझ सकूँ
इस संसार में
मेरे लिए
आख़िर क्या है
प्रेम का अभिप्राय !