भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम का अर्थ / पल्लवी विनोद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रेम की तहों के भीतर
स्व के मिट जाने की प्रक्रिया की गति
इतनी धीमी होती है, जैसे पृथ्वी का घूर्णन
सदा सर्वदा साम्प्रतिक
कुछ भी अनैच्छिक नहीं है।

तुम्हारे नेत्रों से फूटती रश्मियों को समेटते
मेरे विस्फारित नेत्र
सब कुछ निगल लेना चाहते हैं
वो एक पल जो किसी महोत्सव की तरह
जीवन में चला आया
जिन पदचापों की ध्वनि किसी ने नहीं सुनी
हम दोनों ही उस सुंदरतम के साक्ष्य बने
वहाँ कुछ भी वैयक्तिक नहीं है।

हृदय से हृदय तक चलता लयबद्ध सम्मोहन
अनावृत शरीरों का स्फुरण
जैसे उषा काल में किसी पुष्प का प्रस्फुटन
जब प्रकृति भीग उठी ओस की आवलियों से
इस पलों से उपजता एक घने तरु का अंकुरण
हमारी कामनाओं की लताएँ
एक दूसरे को थामें
बसंत की राह देखती हैं
सब कुछ घटता है निरंतर
कुछ भी अप्राकृतिक नहीं है।

हाँ प्रेम है, सूर्य-सा देदीप्यमान
सागर-सा गम्भीर
पृथ्वी-सा धैर्यशील
पवन-सा गतिशील
चंद्र-सा शीतल
अपनी तहों के भीतर, रेत की शुष्कता समेटे
समंदर के भीतर मौजूद किसी द्वीप सा
इच्छा अनिच्छा की प्रबलता से परे
दो आत्माओं के सारे रहस्यों को
लहरों से किनारों पर उड़ेलता
सब सुंदर है प्रेम में
कुंठाएँ, जुगुप्साएँ, उत्कंठा, लालसाएँ
अर्थ को परिभाषित करते प्रेम में
कुछ भी शाब्दिक नहीं है।