’नहीं पिता नहीं हैं
वे तो गुज़र गये !"
जिस सहजता से उस लड़की ने कहा
उससे भीतर तक कांप गया मन 
उसकी आवाज में न शोक था न हताशा
जीवन का तथ्य था 
चेहरे पर अजीब-सी सादगी थी 
और आंखों में एक दूसरी ही सुंदरता 
यह एक बहुत गहरा क्षण था -
न, दुख का नहीं, करुणा का नहीं
प्रेम का 
अठारह साल की वह लड़की कल तक
वसंत, चांद और वल्लरि लग रही थी -
निराला की कविताओं की 
आज इस जन-समुद्र में 
मुड़-मुड़ कर जितनी बार निहारा है उसका चेहरा
उतनी बार गूंजी है महाकवि की पंक्ति -
’मार खा वह रोयी नहीं’
दृढ़ता से ऊंचा यह माथा इतना सुंदर लगा है
कि मन ने चाहा है कि 
सोनजुही का मौर बांध दे उस पर 
कितना जीवनदायी है यह अहसास
कि दुख में यह चेहरा उदास नहीं
सिर्फ सुंदर है !