भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रेम का स्पर्श / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Kavita Kosh से
हे भुवन,
मैंने जब तक
तुम्हें प्यार नहीं किया था
तब तक तुम्हारा प्रकाश
खोज-खोज कर (भी) अपना सारा धन नहीं पा सका था !
उस समय तक
समूचा आकाश
हाथ में अपना दीप लिये
हर सूनेपन में बाट जोह रहा था.
मेरा प्रेम गाता हुआ आया,
फिर न जाने क्या काना फूसी हुई,
उसने डाल दी तुम्हारे गले में
अपने गले की माला !
मुग्ध नयनों से हँसकर
उसने तुम्हें चुपचाप कुछ दे दिया,
ऐसा कुछ जो तुम्हारे गोपन ह्रदय पट पर
चिरकाल तक बना रहेगा,तारा-हार में पिरोया हुआ !
१२ जनवरी १९१५