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प्रेम की एक शाश्‍वत कविता / प्रदीप जिलवाने

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मैंने उम्मीद को
कनेर के फूल की तरह
खिलते और झरते हुए देखा है

मैंने ख़ामोशी को
बीज की तरह धरती में उतरते
और फिर लहलहाते हुए देखा है

मैंने रोशनी को
तिल-तिल की मोहलत माँगते
और अँधेरे के आगे गिड़गिड़ाते हुए देखा है

पहाड़ों को
मंद-मंद मुस्कराते और
जंगल को सुहाग-गीत गाते हुए देखा है

मैंने प्रार्थना के पवित्र शब्दों को
प्रेम की एक शाश्‍वत कविता में
तब्दील होते हुए देखा है