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प्रेम की झंकार / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
तुम्हारे लिए मैं, मैं नहीं हूँ
मेरा प्रेम, प्रेम नहीं है
तुम्हारी परिभाषा में
प्रेम सिर्फ शब्दों का मिलन है
मेरी समझ में प्रेम संपूर्ण मिलन है
देह और आत्मा से परे
एक ब्रह्मांड का
दूसरे ब्रह्मांड में विलय है
शरीर तो नश्वर है
पर तुम देह को
ताप रही हो
अपने मन की तरंगो से
मिलन की बेला को बजाओ
उपजेगा, आनंद उपजेगा
केवल शुद्ध आनंद
बहते झरने की तरह
बिना किसी चाहत के
बासंती हवा की तरह
मन-प्राण को पुलकित करता
आयेगा आनंद
भीगोगी रिमझिम बरखा में
जब घिर आएँगे एक दिन
तुम्हारे नयनों में मेघ काले।