प्रेम की पराकाष्ठा / पल्लवी मिश्रा
कौन है?
जो मेरे एकाकीपन में भी
अपनी मौन उपस्थिति
दर्ज करा रहा है।
चारों ओर देखती हूँ
नजर भर कर
दूर-दूर तक कोई भी तो नहीं
नजर आ रहा है।
हृदय के सूने आँगन में
पुष्प तो नहीं हैं
फिर यह सुरभि कहाँ से आ रही है?
जीवन के तपते रेगिस्तान में
पानी की एक बूँद भी नहीं
फिर यह बदली कैसी छा रही है?
मनवीणा के तारों को
किसने हौले से छेड़ा है?
सम्मोहन का ये कैसा सुर
हवाओं में बिखेरा है?
बन्द करती हूँ आँखें
तो तुम्हारी सूरत नजर आ रही है;
तुम्हारी भावपूर्ण दृष्टि,
तुम्हारी स्नेहिल मुस्कान,
जैसे कुछ कहना चाह रही है।
सुलझती जा रही है
धीरे-धीरे
यह पहेली-
शायद तुम्हारी स्मृति
बन गई है
मेरे एकाकीपन की सहेली-
कण-कण में
तुम्हारी उपस्थिति का
आभास हो रहा है-
मैं अकेली कहाँ हूँ
प्रतिक्षण यह अहसास हो रहा है-
तुम समाए हो
मेरी हर साँस में
मेरे हृदय की आस्था यही है-
दूर रह कर भी
दूर न होना
शायद
प्रेम की पराकाष्ठा यही है।