प्रेम के असम्भव गल्प में-2 / आशुतोष दुबे
प्रेम करने वाले एक लगातार बारिश में खड़े रहते हैं. याद की बारिश में. वे न छाता ढूँढते हैं न छत. खुले में रहते हैं. खुला ख़तरनाक होता है. बारिश होती है लेकिन बिजलियाँ भी गिरती हैं. कहते हैं, पेड़ के नीचे खड़े हो गए तो ख़तरा और बढ़ जाता है.
नहीं, संयोग नहीं यह
वियोग भी नहीं
यह श्मशान-श्रृंगार है
जिसमें विरह शोभा में दीप्त
एक शव दूसरे की प्रतीक्षा में
कातर होता है
देखो
एक पेड़ जल रहा है सामने
वह देखो
उसके नीचे
बारिश से बचने के लिए खड़े हुए हम
राख हो रहे हैं
एक उम्मीद में प्रेम आकार लेता है लेकिन नाउम्मीदी में राख नहीं होता. वह असम्भवता के बरअक्स भी उतना ही उदग्र है, जितना प्रत्याशा में. कामना है लेकिन साध्यता के गणित से बाहर. इसीलिए एक गणना-सर्वस्व समाज में प्रेमी, पागल और कवि एक पँक्ति में गिने जाते हैं. दरअसल, वे तीन अलग-अलग लोग हैं भी नहीं. प्रेम उन्हें घंघोल देता है.