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प्रेम के असम्भव गल्प में-3 / आशुतोष दुबे
Kavita Kosh से
समय में जो सूख गया प्रेम
और अब जिसकी ठीक-से याद भी नहीं रह गयी
बस मन पर उस सूखे निशान की धुंधली स्मृति भर है
प्रेम जो किताबों में दबे सूखे फूल सा नहीं
सहेज कर रखी गई उस चिट्ठी सा नहीं
जिसके पीले पड़ गए कागज़ की तहों को खोलते हुए
उसके टूटने का डर लगता है
प्रेम जो अपनी याद दिलाने से बचता है
छुपता है जो अपने आप से
जो लौ के खत्म हो जाने के बाद
धुँए की उस छोटी सी वर्तुल लकीर का अंतिम लेख है
उचट गई नींद में
अंधेरे में आंखें खोले
जो दिखाई नहीं देता
जिसका सूखा हुआ निशान मन पर उभर आता है
वही है प्रेम
जो अब नहीं है
लेकिन कुछ भी कहा नहीं जा सकता यक़ीन से