प्रेम के दिनों में / गीताश्री
अपने प्रेम के दिनों में हम जगहे ढूँढ़ा करते थे
जहाँ हम प्रेम की छलकती गगरी को हौले से धर कर सुस्ता सकें,
हम खोजा करते थे वह छाँव
जहाँ मेरी गोद में सिर रख कर तुम
अनगिन ख़्वाब बुना करते थे
किन्नरो की तालियाँ हमें ख़्वाब से जगा देती थीं
फेरीवाला मुस्कुराता हुआ ललचा देता था
हमारी दूसरी भूख जाग उठती थी
हमें नरम घास की देह से उठना नहीं था
हमें चीटियाँ और चूहे भी अनदेखा कर गुज़र जाते थे
पेड़ो की झुकी डालियाँ अक्सर
धूप का एक टुकड़ा तुम्हारे चेहरे पर
पोत दिया करती थी
मेरे लिए दुनिया उसी आवर्त में सिमट आती थी
बारिश हमें छू-छू कर हवा हो जाती थी
और हवा जैसे आँधियाँ
हरकारे आवाज़ लगाते हमें घेरते थे चौतरफ़ा
तुम उठते थे किसी पर्वत की तरह
मैं किसी लहर-सी सिर धुनती थी
तुम्हें वे ले जाने आए थे
मुझसे दूर-दूर बहुत दूर
जहाँ नहीं पहुँचती थी आवाज़ें न मेरी कातर पुकार
फिर समझा नदी होने का मतलब
कि क्यों नदी पीछा करती है समन्दर का
और अन्त में वही पहुँचती है समन्दर तक
बेचैन समन्दर, फेनिल उच्छंवासो से भरा...
समन्दर-समन्दर ही रहा, नदी-नदी नहीं रह पाई।