चाँद था आज तलवार की धार-सा
लपलपाती हुई चाँदनी की चमक
उस चकाचौंध में रास्ता खोजता
रात भर वह उजालों में उलझा रहा
उसकी आँखों में इतने अधिक स्वप्न थे
जैसे सपनों की कोई नदी
मन्दराचल से आई उमड़ती हुई
और आत्मा के सागर को भरती रही
बस उजाले से भरती हुई रात थी
और वह था लगातार बुझता हुआ
बिना तेल-बाती का खाली दिया
पुराने से दीवट पे रक्खा हुआ
किसी को बुलाते हुए रास्ते
रात भर घूमते लड़खड़ाते रहे
इक अजब सनसनी थी गगन में भरी
जैसे किरनों के बानों की बौछार से
तारे बचते रहे टिमटिमाते रहे
तिलमिलाते रहे
चाँद था आज तलवार की धार-सा
प्रेम के पंथ जैसी कठिन राह थी....