प्रेम बहुत मासूम होता है / विजय राही
प्रेम बहुत मासूम होता है
यह होता है बिल्कुल उस बच्चे की तरह
टूटा है जिसका दूध का एक दाँत अभी-अभी।
माँ ने कहा है कि जा ! गाड़ दे, दूब में इसे
उग आये जिससे यह
फिर से और अधिक धवल होकर
और वह चल पडता है
ख़ून से सना दाँत हाथ में लेकर खेतों की ओर ।
प्रेम बहुत भोला होता है
यह होता है मेले में खोई उस बच्ची की तरह
जो चल देती है चुपचाप
किसी भी साधू के पीछे-पीछे
जिसने कभी नही देखा उसके माँ-बाप को ।
कभी-कभी मिटना भी पडता है प्रेम को
सिर्फ़ यह साबित करने के लिए
कि उसका भी दुनिया में अस्तित्व है ।
लेकिन प्रेम कभी नही मिटता
वह टिमटिमाता रहता है आकाश में
भोर के तारे की तरह
जिसके उगते ही उठ जाती है गाँँवों में औरतें
और लग जाती हैं पीसने चक्की
बुजुर्ग करने लग जाते हैं स्नान-ध्यान
और बच्चें माँँगने लग जाते हैं रोटियां
कापी-किताब, पेन्सिल और टॉफियांं ।
प्रेम कभी नही मरता
वह आ जाता है फिर से
दादी की कहानी में
माँँ की लोरी में ,
पिता की थपकी में
बहिन की झिड़की में
वह आ जाता है पड़ोस की ख़िडकी में
और चमकता है हर रात आकर चाँद की तरह ।