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प्रेम में प्राण में गान में गंध में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

प्रेम में प्राण में गान में गंध में
आलोक और पुलक में हो रह प्लावित
निखिल द्युलोक और भूलोक में
तुम्हारा अमल निर्मल अमृत बरस रहा झर-झर।

दिक-दिगंत के टूट गए आज सारे बंध
मूर्तिमान हो उठा, जाग्रत आनंद
जीवन हुआ प्राणवान, अमृत में छक कर।

कल्याण रस सरवर में चेतना मेरी
शतदल सम खिल उठी परम हर्ष से
सारा मधु अपना उसके चरणॊं में रख कर।

नीरव आलोक में, जागा हृदयांगन में,
उदारमना उषा की उदित अरुण कांति में,
अलस पड़े कोंपल का आँचल ढला, सरक कर।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रणजीत साहा