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प्रेम में / निज़ार क़ब्बानी
Kavita Kosh से
जब मैं प्रेम में होता हूँ
तो मुझे लगता है
जैसे मैं वक़्त का सरताज हूँ
धरती और इस पर मौजूद हर चीज़
मेरे अधिकार में है
और अपने घोड़े पर सवार मैं
जा सकता हूँ सूरज तक
जब मैं प्रेम में होता हूँ तो
हो जाता हूँ आँखों के लिए अदृश्य
किसी तरल रौशनी-सा
और मेरी डायरी में दर्ज कविताएँ
तब्दील हो जाती हैं
पीले और लाल फूल से भरे खेतों में
जब मैं प्रेम में होता हूँ तो
मेरी उँगलियों से फूट पड़ती है
जल की धार
और जीभ पर उग आती है हरी घास
जब मैं प्रेम में होता हूँ तो
मैं हो जाता हूँ समस्त समय से बाहर
एक समय
जब मैं किसी
स्ट्रे के प्रेम में होता हूँ
तो सारे पेड़
दौड़ पड़ते हैं मेरी ओर
नंगे पाँव..
अँग्रेज़ी से अनुवाद : भावना मिश्र