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प्रेम समुद्र परयो गहिरे अभिमान के फेन रह्यो गहि रे मन / देव
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प्रेम समुद्र परयो गहिरे अभिमान के फेन रह्यो गहि रे मन ।
कोप तरँगन ते बहि रे अकुलाय पुकारत क्योँ बहिरे मन ।
देवजू लाज जहाज ते कूद भरयो मुख बूँद अजौँ रहि रे मन ।
जोरत तोरत प्रीति तुही अब तेरी अनीति तुही सहि रे मन ।
देव का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।