भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रेम है अपना अधूरा / विनीत मोहन औदिच्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मेघ संतापों के काले, व्योम पर छाए
और पीड़ा भी सघन सी, साथ में लाए
सोचता ही रह गया मैं पी गया हाला
अंग में प्रत्येक मेरे चुभ रहा भाला।

पुष्प सा महका न जीवन, कष्ट है भारी
नेत्र करके बंद बैठे, रैन भर सारी
धमनियों में रक्त बहता, पर निराशा है
श्वाँस है अवरुद्ध मेरी, दूर आशा है।

प्रेम अपना है अधूरा, सच अटल जानो
है तृषा का वास उर मे, यह सहज मानो
हार कर बाजी डगर में, रुक नहीं जाना
ध्येय हो मिल कर हमारा, लक्ष्य को पाना।

है यही अब चाह उर में, बस तुम्हें पाऊँ।
भाग्य पर अपने सदा ही, नित्य इतराऊँ।।