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प्रेम (दोहे) / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
सोच -समझकर कीजिए, प्रेम नहीं आसान।
तन, मन, धन सबका यहाँ, करना पड़ता दान।।
प्रेम कृष्ण की बाँसुरी, प्रेम राधिका नाम।
पावन सच्चा प्रेम यूँ, जैसे चारों धाम।।
प्रेम अनूठा है बड़ा, प्रेम अजब संयोग।
वही दवा भी प्रेम की, जिससे मिलता रोग।।
प्रेम भंग जिस पर चढ़े, भूले वह संसार।
उसको है दिखता अगर, प्यार प्यार बस प्यार।।
जहाँ प्रेम होता सघन, सच्चा और अनूप।
इक दूजे में ही दिखें, ज्यों प्रिय के प्रतिरूप।।
दिखती राधा श्याम में, औ राधा में श्याम।
दोनों एकीकृत हुए, अमर प्रेम का धाम।।
इक औ' इक दो हैं नहीं, प्रेम अनोखा योग।
योग अगर हो जाय यह, रुचे न कोई भोग।।