भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रेम / कुमार मंगलम
Kavita Kosh से
हवा चली है पुरवाई
और महक उठा है कमरा
रजनीगंधा के सुगंध से
पूरब की तुम थी
और जब भी बहती है पुरवा
तुम्हारी देह गंध को महसूस करता हूँ
2
मेरे कमरे में
मेरी पत्नी ने गुलदान में रख दी है रजनीगंधा
रजनीगंधा के फूल जैसे आंखें हो तुम्हारी
उसे देखता हूँ तो लगता है
उनमें कुछ अनुत्तरित सवाल हैं
जिनके जबाब मेरे पास है
3
रजनीगंधा की फूल
मेरे मन को सहलाती हैं
और
याद आता है वो पल
जब तुम्हारी उंगलियां मेरे बालों को सहलाती थी
4
प्रेम के सबसे अकेले क्षण में
जब हम केलिरत थे
लाज छोड़ सिमट गई थी तुम मुझ में
तुम्हारे उन्नत उरोजों पर
फूलों की पंखुड़िया चिपकी रह गयी थी.