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प्रेम / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

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किसके सरस अपांगों में तुम छिपे हुए हो,
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे !

किसके मृदुल अधर में आ तुम रुके हुए हो,
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे !

किसके नयन नलिन में तुम गूँजते निरंतर,
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे !

किसके हृदय-सदन में तुम पल रहे निरंतर,
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे !

मैंने कभी न देखी वह अप्सरा कुमारी,
वह सुन्दर नवेली !

मेरे लिए तुम्हे जो है पालती हृदय में,
वन में कहीं अकेली !

किसके हृदय-सदन में तुम पल रहे निरंतर,
ओ प्रेम, प्रेम ओ मेरे !