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प्रेम / दिनेश कुमार शुक्ल
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मैं तुमको वो देस दिखाता
जो दुनिया क्या सपनों तक में कहीं नहीं है
यदि तुमको दे पाता आँखें
जिन आँखों में
अतल ताल की गहराई हो
मैं तुमको वो गीत सुनाता
जिसकी लय में लीन
प्रलय भी लास्य नाचता
काश कि मैं
जीवन की सूनी दुपहर वाली
गलियों में
तुमको फिर मिलता अकस्मात् ही
काश कि मैं
फिर जरा-जन्म के पार
तुम्हें सन् छाछठ-सरसठ में ले जाता...
ले जा पाता!