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प्रेम / पाब्लो नेरूदा

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क्या हो गया है तुम्हें, हमें ?
क्या हो रहा है हमारे बीच ?
आह.. हमारा प्रेम एक सख़्त रस्सी-सा है
जिसने हमें बाँध तो रखा है पर ज़ख़्म भी देता है
और गर हम मुक्त होना चाहें इन ज़ख़्मों से,
गर होना चाहें जुदा,
तो ये पैदा कर देता है एक नया बन्धन हमारे लिए,
और हमें मुक़र्रर करता है ये सज़ा
कि अपने ख़ून से सींचते रहें इसे
जलते रहें एक साथ

क्या हो गया है तुम्हें ? मैं देखता हूँ तुम्हें
और मुझे कुछ नहीं दिखता सिवाय दो आँखों के
जो हैं तमाम और आँखों जैसी,
एक चेहरा, जो गुम है अपने जैसे उन हज़ारों चेहरों की भीड़ में, जिन्हें चूमा था मैंने कभी
इनसे कहीं ख़ूबसूरत,
एक बदन उन तमाम बदन जैसा
जो फिसल आए थे मेरे बदन के नीचे और नहीं छोड़ गए अपनी स्मृतियाँ.

और कैसा बेमानी जीवन जीती रही तुम
जैसे गन्दला.. धूसर कोई डब्बा
जिसमें हवा भी न हो, न हो कोई स्वर..अस्तित्वहीन-सा !
मैं व्यर्थ ही खोजता था तुममें अपनी बाँहों के लिए गहराइयाँ,
वे बाँहें जो निरन्तर कुरेदती रहीं ज़मीन के नीचे:
तुम्हारी ज़िल्द के पार, तुम्हारी निगाहों के पार,
उसकी तलाश में मुब्तिला
जो कभी नहीं मिला
कभी न महसूस किया मैंने
कि उठी हो कोई हलकी-सी भी पारदर्शी सिहरन
तुम्हारे सीने के दो उभारों के नीचे
जिसे नहीं पता कि वो क्यों लहराता है किसी धुन पर.
क्यों..क्यों..क्यों,
मेरे प्रेम, क्यों ?

अँग्रेज़ी से अनुवाद : भावना मिश्र