प्रेम / रश्मि भारद्वाज
सात समन्दर पार लाल परी के झोले में रखी
जादुई डिबिया में बन्द एक ख़ुशबू-सा प्रेम
डिबिया खोलते ही
छू !… हाथ कुछ भी नहीं
ग़ायब हो गई डिबिया भी
और तब होता है एहसास
यह कुछ और नहीं
है उनींदी आँखों का एक सपना भर
किसी अनाड़ी मछुआरे की तरह प्रतीक्षारत हम
निहारते हैं अनन्त विस्तार
तन मन के स्पन्दन को समेटे
सम्भावनाओं के नील जल में तलाशते जीवन के टुकड़े
लेकिन शाम तक लौट आते हैं वापस
उठाए खाली टोकरी क़िस्मत की
प्रेम छिपा होता है कहीं गहरे अतल में
वह जो एक अंश हम सा विचरता है ब्रह्माण्ड में
लाख बुलाओ उसे लौट आती है प्रतिध्वनि वापस
हम देते हैं दिलासा
जो मिला वही प्राप्य था
वही एक आवाज़ आनी थी हम तक
आवाज़ों के सघन जंगल को चीरती
बनकर मनचाही पुकार
जाने क्यों एक दिन फिर
आवाज़ के तलवों में उग आती हैं नुकीली कीलें
ठक-ठक रौंदी जाती हैं आत्मा
गुज़र जाता है कोई बन्द किए आँखें
छोड़ पीछे नीले-स्याह निशान
उसे भी तो बुलाया प्रेम ही हर बार