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प्रेम / श्रीनिवास श्रीकांत

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सन्नाटा स्थापत्य है
स्मृतियों का
झींगुरों सा बजता है
विचारों के झुरमुट में
भावों की बरसात के बाद

वन नहीं जानते
उसका सौन्दर्यशास्त्र
वे शब्दों को पहुँचाते हैं
ज़हन के गतिमान यंत्र तक
छन कर आते हैं अर्थ
और रक्त घूमने लगता है
धमनियों में

आवाज़ें तो हैं स्मृतियों की
रंग-बिरंगी पोषाकें
पहन वे उतरती हैं
चेतना के मंच पर
पलों की बाँसुरियाँ
करतीं निनाद
नाचती हैं स्मृतियाँ
स्वचालित पुतलियों की तरह
झनझना जाती हैं
संगतकार
स्नायविक तंत्रियाँ
कभी सरोद, कभी वीणा
कभी रुदनशील
वॉयलन की तरह
जीने लगता है पुन: आदमी
अतीत के गलियारों में
सुख के तराशे स्तम्भों को गिनता
जादुई से अन्दाज़ में
और समय होता है
इस तरह पुनर्जीवित

छत्ता बदलती हैं
गुजरे हुए पल की मधुमक्खियाँ
प्रेम के नन्दन उद्यान में
होता है परागण
प्रयास करती हैं वे
महकते मौसम में
अगले मधुसंचय का।