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प्रेम / सुजाता
Kavita Kosh से
कुछ देर ठहरती है पलकों पर बूँद
किसी क्षण में दुनिया की कई यात्राएं
भटकती हैं
और डूब जाते हैं कई जहाज़
किसी अदृश्य रहस्यमय त्रिकोण में
पर्वतों से बर्फ की कई जमी परते
उतनी देर में खिसकती है भीषणता से
धरती उकताई हुई किसी एक पल में
करवटें बदल लेती है जाने कितनी बार
कई ख़त लिख कर फाड़ दिए जाते हैं
असम्भव फैसले टलते हैं कुछ पल और
उतनी देर भर असंपृक्त हो जाती हूँ मैं
जैसे गहरे जल में गोता लगाते
बस बंद कर ले कोई नाक
फिर उबर आए
ऐसे मैं प्रेम में हूँ!
ऐसे मैं प्रेम में निस्संग!