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प्रेयसी / नरेन्द्र शर्मा

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(१)
पर सह्य नहीं है मुझे तुम्हारा आना!

हूँ मैं दूर्वादल के समान लघु कोमल,
तुम ज्यों प्रचंड मार्तंड लिये प्रेमानल,
स्वाभाविक बना दिया मेरा मुरझाना!
सच, सह्य नहीं है मुझे तुम्हारा आना!

पर सह्य न मुझको दूर तुम्हारा जाना!

तुम ही सोचो, मैं जीवन किससे पाती?
यों हरी हरी मैं कैसे निखरी आती?
सीखती और मैं किसपर दर्प दिखाना?
सच, सह्य नहीं है मुझे तुम्हारा जाना!

(२)
पर सह्य नहीं है मुझे तुम्हारा आना!

मैं हूँ छोटी सी बूँद ओस की सुन्दर,
तुम जल के लोभी सूर्य, बढ़ा चंचल कर--
चाहते व्यर्थ क्यों पल में मुझे मिटाना?
सच, सह्य नहीं है मुझे तुम्हारा आना!

पर सह्य न मुझको दूर तुम्हारा जाना!

मैं, तुम्हीं कहो किसके बल पर मुस्काती?
किसके प्रकाश में रँग पर रंग खिलाती?
मरकत पर हँसता क्यों मोती का दाना?
सच, सह्य नहीं है मुझे तुम्हारा जाना!