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प्रेस में बैठ कर / शमशाद इलाही अंसारी

Kavita Kosh से
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हर रोज़ मैं स्वयं को
आठ घन्टे के लिये
कर देता हूँ क़ैद
बन्द कर देता हूँ
प्रश्नों के ज्वार की
प्रक्रिया को।

रोक देता हूँ
उनके वेग को
सीमाओं के भीतर
क्योंकि मैं बाध्य हूँ
शब्दों के चकलाघर की
मर्यादा की रक्षा करने को।

जहाँ ज़ुल्म के खिलाफ़ लड़ने वालों को
उग्रवादी लिखा जाता है और
मुक्ति यौद्धाओं को आतंकवादी।

हर उस शब्द को
जो इस व्यवस्था पर प्रहार करे
फ़ेक दिया जाता है
मासिक धर्म के कपडे़ की तरह।

यहाँ हर रोज़ हर क्षण
घटनाओं का शीलभंग
करने की स्पर्धा में
आगे बढ़ जाने के लिये
शब्दों के बाज़ार के बाज़ीगरों की
होती रहती है उठा-पटक।

चौबीसों घन्टे टप-टप करते हैं
बड़े-बड़े इज़ारेदारों के
श्रापग्रस्त टेलीप्रिन्टर्स
इन्हें ये सब पता है
कितने मरे है आज
पंजाब में, कश्मीर में,असम में
आन्ध्र में कितनों का अपहरण किया
नक्सलवादियों ने।

आदिवासियों से लेकर बुश तक
ये सब जानते हैं
पर कभी नहीं बताते
आज राजकीय आतंकवाद से
कितने देशवासी मारे गये,
इनके सुरक्षाबलों द्वारा
कितने जनान्दोलनों पर बरसी हैं गोलियाँ,
कितने मासूमों को मार डाला गया
थानों में, फ़र्जी मुठभेडों में,
कितने घरों में घुसकर
की गयी है लूटपाट,
रौंद दी गयी हैं कितनी
कोमल-लाचार जवानियाँ
कितने लोग भूख़ से मरे
कितने लोगों के पास हैं
घर, कपडे, शिक्षा
और स्वास्थ्य की सुविधायें।

ये सब जानते हैं पर....

ये सब जानते हुये भी
मैं लिप्त हूँ
इनके दुष्चक्र में।

सौंप देता हूँ इन्हें स्वयं को
क्योंकि यह आवश्यक है
अपने तथाकथित घर में
कुत्ते जैसी स्थिति से
उबर जाने के लिये।

शायद जीवन,
सत्य के कत्ल की राह का ही नाम है।

मैं भी हर रोज़ अभिशिप्त हूँ
शब्दों के इस विवेकहीन, घृणित व्यापार में
संलिप्त होने को।


रचनाकाल : 18.09.1990