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प्रौढ़ता का परिचय / अक्षर-अक्षर रक्त-भरा / ओमप्रकाश गुप्त

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बहुत दिनों के बाद अच्छी कवताएँ पढ़ने को मिलीं। निदा नवाज़ नाम देखकर मैंने सोचा कि यह युवक उर्दू-नुमा हिंदी लिखने की कोशिश कर रहा है। मुझे मालूम है कि ऐसे ‘लेखक’ न इधर के रहते हैं, न उधर के। इस प्रदेश में हिंदी तो वैसे ही घाटे का सौदा है—सौदा क्योंकि आज का युग पूंजी का युग है और कविता मात्र विक्रय की वस्तु बन कर बेहद डरी-डरी है।

निदा नवाज़ की पहली कविता जो मैंने पढ़ी वह ‘योजना’(मासिक-जम्मू) में प्रकाशित हो चुकी थी। कविता पड़ी तो मेरी धारणा बदली—एकदम। एक सुखद आश्चर्य से मैं कविता ‘चेतना सरोवर के तट पर’ पढ़ता चला गया। युवा मानसिकता किस तरह मोहभंग से ग्रस्त है, इसकी सुन्दर और सशक्त अभिव्यक्ति इस कविता में हुई है। कविता की आरम्भिक पंक्तियों ने ही मुझे भाव और विचार के मिश्रित ‘आलोक’ में पहुंचा दिया. “सांझ की लालिमा” परम्परा से रोमांटिक अनुभूति की द्योतक रही है, थोड़ा और आगे बढ़ें तो साम्यवादी क्रान्ति से जुड़ने लगता है यह प्रतीक. लेकिन निदा के यहाँ यह प्रयोंग नितांत मौलिक है।

“मैं पूछता हूँ/सांझ की लालिमा से/क्या रक्त उसी रंग का नाम है /जो हमारे हर शब्द का स्वभाव/हर कविता का अभ्मान...(और आगे की पंक्ति पूरी तरह एक मोड़ ले लेती है -) और हर पुस्तक का शीर्षक/ठहर गया ?”

बिम्ब की रक्षा करता हुआ कवि अर्थ का व्यतिरेक प्रस्तुत करने में पारंगत है –“मैं पूछता हूँ/आकाश में तैरते सूर्य से/क्या न्याय उसी का नाम है /कि मनुष्य हर पल/सौ बार मरे/और फिर भी उस पर/जीवित होने का/कडुवा आरोप लगे.”

‘मरना’ जीने का पर्याय बन जाए---एक सामान्य अनुभूतिजनित तथ्य है। लेकिन कवि इस अनुभूति से आगे निकलकर हमें बताता है कि बार-बार मर कर यह ‘जीना’ मात्र एक ‘आरोप—जीवित होने का कड़वा आरोप बन कर रह गया है। कवि की अनुभूति का एक स्तर वह है जहां वह मर कर भी जीवित होने का आरोप सहने को बाध्य है और इसी में निमज्जित दूसरा स्तर वह है जो कवि की छटपटाहट व्यक्त करता है मानो वह पुकार-पुकार कर कहता है—नहीं,मुझ पर जीवित होने का आरोप मत लगाओ.

कवि रोमांटिक क्षणों को भी भोगता है लेकिन वातावरण में भरा ज़हर उसे बार-बार इस अनुभूति से बाहर घसीट लाता है। यह दर्दनाक सिथ्ति न तो रोमांटिक रह पाती है, न किसी से कर्ज़ ली गई है। यह मात्र सच है। जिन्दगी का सच;वस्तुत:यही जिन्दगी है,यह ‘सच’ जिन्दगी से अलग नहीं है। यहाँ एक चाह शेष रहती है –एक स्वप्न देखने की—

“कि उस/दोपहर की रुपहली धूप को/केवल एक बार मैं/फिर से देखूं/हड्डियों के पिंजरे से निकलूं/आकाशों में उड़ जाऊं.”

रोमांटिक क्षणों का निरंतर बढ़ता अभाव कवि को कचोटता नहीं.कवि की अनुभूति इस स्थिति को बहुत पीछे छोड़ आई है। अब यह अनुभूति इतनी सहज और सामान्य हो गई है कि कवि को ऐसे शब्दों की ज़रूरत नहीं रही जिनसे वह दूसरों को चौंका सके.घर का मोह कवि की अन्तश्चेतना में गहरे धंसा है। लेकिन अभिव्यक्ति का ठंडापन कवि की प्रौढ़ता का परिचय देता है।

“तुम साक्षी रहना /वितस्ता/कि मेरी बेटियाँ /जिनके चेहरों से /यहाँ के सेब/रंग चुराया करते थे/(.....)बारूदी धुएं में/ काली पड़ गई हैं.”

निदा नवाज़ की कविताएँ एक विस्थापित व्यक्ति के ऐसे उदगार नहीं हैं जो अपने घर-बिछुड़े हुए घर को,बाहर खड़ा देख रहा है। कवि अपने आपको युद्ध और मौत के ऍन बीच पाता है –“इस उलझन में हूँ / कि इन लाशों में/मेरी कौन सी लाश है ?”

याद रखना होगा कि कवि अपनी सांस्कृतिक जड़ों को छोड़ या तोड़ नहीं पाता। उसकी आस्था ‘आषाढ़ का एक दिन’की मल्लिका की आस्था से कहीं अधिक सशक्त और विराट है। मल्लिका एक सशक्त प्रतीक होने के बावजूद एक व्यक्ति है और निदा नवाज़ का कवि एक व्यक्ति होकर भी एक समष्टि है. इतिहास और वर्तमान, दोनों को एक साथ आत्मसात करने वाला इयत्ता.

“हमारे हाथों से हर समय /श्रद्धा की घंटियां बजती हैं /और हमारे इतिहास में। ..मधुर श्लोकों की मधु धारा बहती है /....विचार का हर बिंदु /और श्रद्धा भरे सभी श्लोक रक्त-रंजित हो गए.”

एक सांझी विरासत को सुरक्षित रखने का इरादा बहुत पक्का है उसके पास. इस इरादे को नहीं तोड़ पाएगा कोई मज़हबी जनून.क्योंकि कविता हमें इन सारी स्थितियों से पार और परे ले जाती है –इतिहास को पुराण बनाने की क्षमता है उसके पास आज के युग में भी ----“जिससे प्यार हो/उसके साथ नाचना चाहिए /नंगे पाँव /अमावस की रात/किसी दूर द्वीप में/तलवों के रक्तरंजित होने तक....”

कवि के शिल्प में कहीं-कहीं झोल आ गई है। कुछ प्रयोगों में ‘एक’के स्थान पर ‘इक’ का प्रयोग अनावश्यक दीखता है। ’मधुर श्लोकों की मधुधारा’ में मधु अनावश्यक नहीं लगता क्या ?

नि:संदेह, निदा नवाज़ के पास कविता है –अनुभूतियाँ जो स्वत: शब्द बनके निकलती हैं। ऐसे कवि के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

प्रो.ओमप्रकाश गुप्त

(अध्यक्ष,हिंद विभाग, जम्मू विश्वविद्यालय)