प्लावन वसन्त का / बरीस पास्तेरनाक
सूर्यास्त के ताप हो रहे थे निश्शेष
घने जंगल के बीच से होकर निकले वसंत प्लावित मार्ग पर
चलकर जा रहा था एक थकाहारा घुड़सवार
उराल के एक एकांत फ़ार्म की ओर ।
घोड़ा चबा रहा था घबर-घबर घास,
तंग पाटवाली नदी में
जलराशि दौड़ रही थी,
घोड़े की टापों की ताल के जवाब में ।
किंतु अश्वारोही ने जब ढीली कर दी अपनी लगाम
और घोड़े की गति हो गई मंथर
तब वसंत प्लावन लगा,
वज्र की तरह गुज़र गया पास से ।
किसकी हँसी और किसके रुदन हैं यहाँ वहाँ ?
पत्थर पर पत्थर का घर्षण कैसा ?
उन्मूलित वृक्ष टूट कर
हो रहे थे चक्रवातों में विलीन ।
सूर्यास्त के ताप में दूरस्थ तरु-शाखाएँ,
जहाँ हो रही थीं तिमिराभिभूत,
एक पंछी चीत्कार कर उठा वहाँ
संकेत घंटिका की प्रतिध्वनि की तरह ।
सूर्यपति के अस्त हो जाने पर, क्रंदन करती सरई जहाँ
काढ़ लेती है घूँघट अपने वैधव्य का,
वह घुड़सवार, 'रावट नाइटिंगेल' की तरह
सिसकारी भरता है 'ओक' के सप्तसुर वाली बाँसुरी पर ।
किस दुर्भाग्य, किस संताप की
भविष्यवाणी करता है यह हिंसामय वातावरण ?
जंगल की गहनता में गिनगिना उठा
किसको लक्ष्य कर यह आग्नेयास्त्र ?
लगता है किसी क्षण भी प्रग्गट होगा 'नाइटिंगेल'
अपराधी के गुप्त आश्रय से, जंगल की आत्मा की तरह
और साक्षात करेगा अश्वारोही
या पैदल स्थानीय रक्षा दल से ।
धरती, आकाश, जंगल, खेत,सब में
व्याप्त थी उन्मत्तता, पी़आ, सुख और यंत्रणा
जिन सब का अंश समाहित था
वसंत-प्लावन की उस अपूर्वध्वनि में ।