प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा में / मनोज श्रीवास्तव
प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा में
आखिर कब तक
बैठे रहोगे यहां
प्रतीक्षा में किसी की... ...
लोगबाग रेलगाड़ियों से रिहा होकर
और प्लेटफार्म की सीढ़ियां निपटाकर
शहरी प्रदूषण का
सहर्ष हिस्सा बन जाएंगे,
अवैध कारखानों के
वैधीकृत धुओं जैसे... ...
आवाजाही में मशगूल शंकालु लोग
ताकते रहेंगे मुझे
किसी गैर-ग्रह के बाशिंदे जैसे
और अपनी अलपटप अटकलों से
बुनते रहेंगे
अटूट विचारों के कच्चे धागे--
कि होगा कोई व्यथित प्रेमी
बरसों से,
अचानक लुप्त हो गई
प्रेमिका की तलाश में,
बेचारा! च्च च्च च्च च्च ... ...
या, किसी नई तितली की फिराक में
लफंगा, लोफर, लौंडियाबाज़ ... ...
गश्त पर पुलिसकर्मी
अभी भी
घूर रहा है मेरी पोशाक
और ताड़ रहा है
मेरी अजीबोगरीब हुलिया से
कि कहीं यह कोई
पाकिस्तानी घुसपैठिया
आतंकवादी या मानवबम तो नहीं
जो किसी बस या ट्रेन में
जनसंकुल प्लेटफार्म पर
कर दे कोई धमाका,
दहला-दहला दे
इस तामसी देश के
बेहया नागरिकों को,
और सुगबुगा दे
हमारी राजतन्त्रिकाओं, राजशिराओं को
पल भर के लिए
'फेक एनकाउन्टर' के एहसास से
नाड़ियाँ फड़फड़ा उठाती हैं
एकबैक चालू हो उठे
बिजलीघर जैसे,
पर, मन है कि
कोसता ही जा रहा है
मेरे अजगरपन पर--
कि अकारण
प्रतीक्षा करने की मनोदशा में
क्यों कुण्डली मारे रहोगे
कुछ देर और तक
जबकि बूढ़े घोड़े-सा
बमुश्किल खड़ा
यह ओवरब्रिज
हिनहिनाकर बयाँ कर रहा है
मेरे भीतर के
किस कोने की कौन-सी घुटन
जो किन्हीं हड्डियों के
गठियाए जोड़ों से
या, किन्हीं पेशियों की दबोच से
छूटकर मुखर नहीं हो पा रहा है
तभी, अंगुलियाँ चटकाते हुए
मैं कौन-सा गुप्ताशय
ज़ाहिर करता हूँ
जिसे खम्भे पर आराम फरमाती औरत
कोई छद्म संकेत समझकर
मुस्कराती है और
मुझे किन्हीं चिर-दमित यौन कुंठाओं पर
शर्मसार-शर्मसार कर जाती है
बेशक! आदतन
इंतज़ार करने के जूनून में
हमारी त्रिकाल दौड़ तीव्रतर हो जाती है,
हम वस्तु, व्यक्ति
और प्राय: दिवास्वप्न के पंख पर बैठकर
बखूबी तौल लेते हैं
अतृप्त इच्छाओं का वज़न
और घूम-फिर आते हैं ख्यालों में
धार्मिक, अनैतिक और असामाजिक क्षेत्रों से
महानगर के सभ्रांत बुजुर्गों जैसे,
जो अपनी चश्मा-चढ़ी आँखों से
अकारण उन्मादित लड़कियों के बदन पर
टटोल लेते हैं
यौनोत्तेजना की चिपचिपाहट
शायद, बैठे रहने से
उकता चुकाने पर
हम चहलकदमी भी करते रह सकते हैं
नहीं कह सकता
कितनी देर तक,
किसकी प्रतीक्षा में
कौन-सी पहर तक,
किस गाडी के छूटने और आने तक
क्योंकि हम ऐसा
करते रहने को अभिशप्त हैं
और बखूबी तन्मयतापूर्वक व्यस्त हैं
निरुद्देश्यता की इस सुकूनावस्था में
जहां से आनंदातिरेक के लिए
हम देखते-देखते रहेंगे
रेलपटरियों के नीचे
उन बिलों को
जिनसे बिलौटे चूहे
गाड़ियों के आखिरकार
आ-धमकाने जैसी दुर्घटना पर
निकल पड़ेंगे दल-बल समेट,
टूट पड़ने के लिए
यात्रियों द्वारा फेंके गए
छीजनों-जूठनों पर,
इंसानियत के केंचुल छोड़
नव-निर्वाचित जनप्रतिनिधियों जैसे
जो भकोस लेना छाहते हैं
सभी साधन-संसाधन,
निचोड़ लेना चाहते हैं
गरीबी से अमीरी की सभी संभावनाएं
इस राष्ट्रीय मधुछत्ते की
आख़िरी बूँद तक
हम यहाँ कितनी बार
किस अप्रतीक्षित की प्रतीक्षा में
कितने अपाहिज घंटों से निपटाकर,
इस निर्वाणावस्था में आने के लिए
कितने शुक्रगुज़ार हो चुके हैं
इस सहज-सुलभ आदत का,
आसमान में टकटकी लगाए हुए
लुप्तप्राय गीधों की प्रजाति पर
जो आमादा हैं
इस सदी को
पुराण बनाने पर,
लेकिन, वे ऐसा कैसे कर पाएंगे
क्योंकि राजप्रासादों वाले
उनके समकालीन सफ़ेद बाज़
गीध संस्कृति को
राजसंस्कृति से जोड़ते जाएंगे
और असीम-अछोर गीध युग को
सुदूर भविष्य में
प्रक्षेपित करते जाएंगे.