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फगुआ / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
होली का हुड़दंग मचेगा, घर बैठेगा रंग
अलकतरा से संगमरमर का स्वागत होगा
भीम भैंस पर उन्मत्त यम का आगत होगा
जाते जितना चैत न होगा, आते फागुन तंग।
शील शिला, तो उधर जोगिरा घर का पाहुन
लोकधुनों पर बरसंेगे मदिरा के ओले
बीच सड़क पर सभी मिलेंगे छाती खोले
छतनायेंगे छाली-सा ही सारे अवगुण।
होरी का मुँह बंद मिलेगा धनिया भी भयभीत
गोबर चाहे जितना उछले, कुछ भी नहीं चलेगा
चैकी, छप्पर, खटिया क्या है, संवत जहाँ जलेगा
क्यों सोचें इस रीछ-युद्ध में किसकी होगी जीत।
कब आयेंगे दिन गुलाल के, कब पलाश के दिन
फगुआ व्याकुल दीख रहा है उंगुली पर दिन गिन।