भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फगुनाए दिन / शचीन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
तुम आए
तो सुख के फिर आए दिन
बिन फागुन ही अपने फगुनाए दिन
पोर-पोर ऊर्जा से भरा देह-मन
निमिष-निमिष के
हलके हो गए चरण
उतर गई प्राणों तक
भोर की किरण
हो गए गुलाबी फिर सँवलाए दिन
हो गई बयार
इस प्रकार मनचली
झूमने लगी फुलवा बन कली-कली
भोर साँझ दुपहर
मन मोहने लगी
धूप-धूल से लिपटे भी भाए दिन