फटी बाँहों की फ़्रॉक वाली लड़की / सुरेन्द्र स्निग्ध
मेरे मानस पर उभर रही है
एक धुन्धली-सी तस्वीर
ढेर सारे लोगों के
कई-कई समूह
कर रहे हैं मन्त्रणा
वे शहर को बन्द करवाना चाह रहे हैं
या कोई अन्य अराजकताएँ पैदा करना
चह रहे हैं
पता नहीं चल रहा है
सट-सट कर बैठे हैं सभी
सभी के चेहरे हल्के-हल्के
हिल-डोल रहे हैं
पहचानना मुश्किल है इन्हें अलग-अलग
इस धुन्धलेपन में सभी एक-से लगते हैं
कुछ आवाज़ भी आ रही है
मक्खियों की भनभनाहट जैसी आवाज़
बहुत मुश्किल है इसका अर्थ लगाना
आवाज़ रुक गई है
समूहों में पैदा हो रही है हरकत
और अचानक
तेज़-तेज़ क़दमों से यह बढ़ने लगा है
स्टेशन की ओर
अब कुछ चेहरे
पहचाने से लगने लगे हैं
सपाट
प्रतिक्रियाहीन
कुछ-कुछ झुके से
कुछ-कुछ बुझे से चेहरे
सारे के सारे चेहरे
पंक्तिबद्ध खड़े हैं टिकट-खिड़की पर
लम्बी-सी है पंक्ति
और लोकल-ट्रेन के आने में है
कुछ सेकेण्ड्स की देर
आधे लोग ही अभी
कटा पाए हैं टिकट
कि आ गई है लोकल-ट्रेन
जिसने टिकट लिया
दौड़ पड़ा ट्रेन की ओर
जिसने टिकट नहीं लिया
दौड़ पड़ा ट्रेन की ओर
पलक झपकते
पूरा हुजूम है ट्रेन के अन्दर
कोई शोर नहीं
ट्रेन की कोई आवाज़ नहीं
मेरी नज़रों से ओझल
हो रही है ट्रेन
अचानक नज़र आ रही है
एक काली-सी लड़की
फटी बाँहों का पहने फ्राक
हाथ में छोटा-सा थैला लिए
आँधी की तरह दौड़ी चली जा रही है
ट्रेन की ओर
पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ
कौन है यह लड़की
वर्षों से लगातार
दौड़ती नज़र आती है
इसी प्लेटफ़ार्म पर
कभी पकड़ नहीं पाती है
लोकल ट्रेन