फड़फड़ा कर पंख उड़ते पल / वर्षा सिंह

आज भी आई नहीं पाती तुम्हारी ।

फड़फड़ा कर पंख उड़ते पल
सारस की तरह उजले
क्षितिज की ओर के सब दॄश्य भी
अब हो गए धुँधले

रोशनी परछाइयाँ लाती तुम्हारी ।

प्रतीक्षा की नियति का दर्द
आँखों में उमड़ पड़ता
किसे दूँ दोष ? मन भी तो
हरेक पल-छिन कसक उठता

अब तुम्हारी याद ही थाती तुम्हारी ।

सूनेपन का पोखर भी
लबालब यूँ भरा लगता
कि जिसमें डूबता जीवन
कहीं शैवाल में फँसता

दूर से कुछ आहटें आतीं तुम्हारी ।

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