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फरकणी / हरिचरण अहरवाल ‘निर्दोष’

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तड़का सूं ई लगा आई छी च्यार चक्कर तो
रेवड़ी, बाड़ा अर छंदवाड़ का
कोई न्हं मन म्हं हांसी, उदासी
अर राम-रोस कोई सूं
बस चूल्हा-चौहा, फरण्डा
अर सरकाऊ हैण्डपंप सूं
भर’र लावां म्हं ई तीन बेवड़ा
आ जावै छै दफेर।
 
फूंका दे-दे’र सळगातां बी
नीठ कठण सूं सळग्यो चूल्हो
रोटी-पाणी, बरतन-बासण सूं नमट’र
खेत खलाणा मं बी झूंक दे छै जीव
झुझकर्यो पड़्यां पाछ आ’र संभाळै छै
छोरा-छोर्यां नीं तो, ताव-बुखार तो न्हाई न
ऊही तड़का को काम करणी पडै़ छै
स्याम की बी।
संदा-का-संदा सोग्या छा खा’र
फेर बठी छी खाबा
तड़का की सेळी च्यार रोट्यां ले’र
अर करती गी बातां घर का धणी सूं
कांई-कांई होग्यो काम,
अर घटग्यो कांई-कांई
तड़काऊ म्हं बेगी उठबा का लेख
काल को काम सोचती-सोचती ही सोगी
जस्यां फरकणी अर परथुई चालती तो रह छै।