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फर्क-1 / भरत ओला
Kavita Kosh से
पत्थर के टूकड़े
जब लुढ़कते है
टूट कर
तो एक आवाज होती है
गड़गड़ाहट, बेहद, कर्कश, भारी !
मगर
जब फूल टूटता है
तक न आवाज होती है
न गड़गड़ाहट
बूंद दो बूंद
आँसू की
टपक जाती है
जमीं पर
चुपचाप, निस्तब्ध !