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फल की आस / बुद्धिनाथ मिश्र

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फल की आस लिए अंतर में
कब तक यों परिचय गुहराए
छोड़ चला पंछी दोपहरी
पात-झरी डालों के साए ।

कुछ दिन पहले इसी डगर के
पनघट पर होते थे वादे
अक्सर भूल गया मग मृग था
सुनकर पायल के स्वर सादे

अब तो घट-घट भरी उदासी
पनघट पर विस्मृति के जाले
अब न रहीं वे लाल मछलियाँ
जो बरबस लोचन उलझा लें

देख मुझे मंदिर की प्रतिमा
बीती पर यों शरमा जाए
जैसे पूनम के चेहरे पर
सौ-सौ जवाकुसुम लहराए ।

पल प्रलयी बीते ज्वारों के
अविरल जली नयन की बाती
कोटर में शुक के शावक-सी
दुबकी रही किरण की थाती

कस्तूरी घूंघट से जब-जब
बींध गयी सुधि की पुरवाई
साँझ-सबेरे अंजलि में भर
मैने छबि अपनी दुलराई

अपनी ही वंशी की प्रतिध्वनि
मर्मस्थल ऐसे छू जाए
जैसे नागफनी का काँटा
नागफनी को ही चुभ जाए ।