भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फसल कट जाने पर खेत हो जाते साफ / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फसल कट जाने पर खेत हो जाते साफ;
उगती है काँस घास,
अनादर का शाक तुच्छ दाम का।
भर-भर आँचल आतीं है चुनने उसे
गरीब घर की लड़कियाँ,
खुशी-खुशी जातीं घर
जो मिलता उसे संग्रह कर।
आज मेरी खेती चलती नहीं,
परित्यक्त पड़े खेत में अलसाई मन्थर गति से
आलस के दिन योंही चल रहे हैं।
भूमि बाकी कुछ रस है,
मिट्टी नहीं कड़ी हुई;
देती नहीं कोई फसल, क्रिन्तु हरी रखती है अपने को।
श्रावण मेरा चला गया,
न बादल है न वर्षा धारापात की;
कुआर-कातिक भी बीत गया, शोभा नहीं शरत की।
चैत मेरा सूखा पड़ा, प्रखर सूर्य ताप से
सूख गई नदियाँ सब,
वन फल के झाड़ों ने यदि बिछाई हो छाया कहीं
समझूंगा यही मैं, मेरे शेष मास में
धोखा नहीं दिया मेरे भाग्य ने,
श्यामल धरा के साथ
बन्धन मेरा बना रहा।

‘उदयन’
प्रभात: 10 जनवरी, 1941