फसाने / ऋचा दीपक कर्पे
एक पल को लगता है,
तुम बहुत दूर चले गए हो।
इन आँखों ने बरसों से
नही देखा तुम्हें।
ये कान तरस गए
तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए।
अब न बातें होती है,
न मुलाकातें।
लगता है दिल के आसमां पर छाए
यादों के घने काले बादल
अब छट चुके हैं।
ये दिल एक पेड़ है पतझड़ का।
इसपर लगे यादों के हरे पत्ते
पीले पड़ चुके हैं,
उड़ चुके हैं...
धंस चुके हैं जमीन में।
और ढांक लिया है इन्हे धूल मिट्टी ने...
हाँ, मैं भूल चुकी हूँ तुम्हें।
लेकिन...
अगले ही पल ...
आसमान घिर जाता है,
काले बादलों से।
घुमड़ घुमड़ के आते हैं बादल
जैसे तुम्हारी यादें!
आँखें बंद करते ही बन जाती है,
तस्वीर तुम्हारी बोलती-सी...
यादों की किताब का एक-एक पन्ना
फड़फड़ाने लगता है।
खुलने लगता है...
मैं जी लेती हूँ
वो सारे पल फिर से,
जो जिये थे साथ तुम्हारे...
या वह पल जो जीना चाहती थी।
कानों में गूँजने लगती हैं,
वो सारी बातें जो तुमने कही थीं।
या वह जो सुनना चाहती थी तुमसे...
यादों और सपनों का एक तूफां उठता है,
अचानक आँखें खुलती हैं...
और बरस जातें हैं सारे बादल
उन आँखों से मूसलाधार।
मैं दोनों हाथों से
बंद कर लेती हूँअपने कान,
कि सुन न सकूँ
तुम्हारी गूँजती हुई हँसी...
लेकिन न आँखों में न कानों में
तुम तो बस चुके हो दिलोदिमाग में
मौसम बदलेंगे दिन बीतेंगे
लेकिन हमारी बातों मुलाकातों के
फसाने यूँ ही बरसते रहेंगे
हर सावन की बरसात में...