भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ़क़त शून्य / यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम हो तो गए हैं
सत्यवादी हरीशचंद्र
परंतु
सच कभी नहीं बोलते
यदि अचानक कभी सच
आ भी जाता है जुबान पर
तो हम
कड़वी दवाई की तरह उसे निगल जाते हैं

आखिर क्यों ?
मैं बताता हूँ

हम पूंजी और मानवता की
वर्ण संकर संतानें हैं ।
चेहरे पर से चेहरे
चेहरे पर से चेहरे
चेहरे पर से चेहरे
प्याज़ के छिलकों की तरह उतारते जाएँ
अंतत: वजूद जैसा
एक दाना
पहचान भी राम नाम सत्य है
पीछे फ़क़त शून्य ।

अनुवाद : नीरज दइया