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फ़क़ीरों में उठे बैठे हैं शाहाना गुज़ारी है / मुनव्वर राना
Kavita Kosh से
फ़क़ीरों में उठे बैठे हैं शाहाना <ref>राजसी ठाठ-बाठ से</ref>गुज़ारी<ref> बिताई है</ref>है
अभी तक जितनी गुज़री है फ़क़ीराना गुज़ारी है
हमारी तरह मिलते तो ज़मीं तुमसे भी खुल जाती
मगर तुमने न जाने कैसे मौलाना गुज़ारी है
न हम दुनिया से उलझे हैं न दुनिया हमसे उलझी है
कि इक घर में रहे हैं और जुदा-गाना<ref>अलग-अलग</ref>गुज़ारी है
नज़र नीची किये गुज़रा हूँ मैं दुनिया के मेले में
ख़ुदा का शुक्र है अब तक हिजाबाना <ref>पर्दे में रहकर</ref>गुज़ारी है
चलो कुछ दिन की ख़ातिर फिर तुम्हें हम भूल जाते हैं
कि हमने तो हमेशा सू-ए-वीराना<ref>निर्जनता में</ref>गुज़ारी है
शब्दार्थ
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