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फ़ज़ल मियाँ को कुछ नहीं हुआ, दोस्तो! / लीलाधर मंडलोई

नहीं रहने की कुछ भी स्थिति के बीच बची रही इतनी गुंजाइश अहा!!
दौड़ पड़ूं मोहल्‍ले को लांघता बाहर
इस अदने से जज्‍बे की छूटी हुई जगह से पुकार उठूं बेसाख्‍ता
फजल मियां को कुछ नहीं हुआ दोस्‍तों

सुनने में नहीं आई पास-पड़ोस की तंगदिली
'कोखां पंडित जी' बुलाने पर टोका नहीं गया उन्‍हें
फिक्रमंद रहे सभी कि देखते रहे रास्‍ता फिक्र से

देर रात कम झूमते लौटने पर
हंसी-ठिठोली में सही कोसा सभी ने एक साथ
किस कदर ज्‍यादती है कि कितनी कम मिली फजल भाई को आज

निकलने को हूं जबकि बाहर अब
क्‍यूंकर याद नहीं आता झटके से कोई और नाम याद

जैसा यकीनन लोग मान बैठे हैं कोई बताए मुझे?
क्‍या बस इतने भर से हो गया हूं भीतर से मुसलमान मैं...!!!