भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ़रिश्ते की मज़मून पर घर में की गई क़वायद / तादेयुश रोज़ेविच / विनोद दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गिरे फ़रिश्ते
होते हैं कालिख की पपड़ी की तरह
अबेकस की तरह
काले भात भरी पत्तागोभी की तरह
लाल रंग से पुते ओलों की तरह भी वे होते हैं
और होते हैं पीली लौ वाली नीली लपट की तरह

गिरे फ़रिश्ते
उन चीटियों और चाँद जैसे दिखते हैं
जो किसी मुर्दे के हरे नाख़ूनों के पीछे
ख़ुद दुबके रहते हैं

जन्नत में फ़रिश्ते
एक किशोरी की जाँघ के भीतरी हिस्से जैसे होते हैं
वे तारों की तरह होते हैं
वे गुप्ताँगों में चमकते हैं
वे त्रिकोण और वृत की तरह साफ़ होते हैं
जिनके केन्द्र में होती है
ख़ामोशी

गिरे फ़रिश्ते
मुर्दाघरों की खिड़कियों जैसे खुले होते हैं
गाय की आँखों से होते हैं
परिन्दों के पँजर से होते हैं
टूटे-फटे हवाई जहाज़ की तरह होते हैं
धराशायी सैनिक के फेफड़ों पर उड़ती मक्खियों की तरह होते हैं ।
वे शरद की बारिश की उन लड़ियों की तरह होते हैं
जो होंठों को परिन्दों की उड़ान से जोड़ते हैं

लाखों फ़रिश्ते
एकसाथ एक औरत के हाथों की तरफ़ बढ़ते हैं

उनकी नाभियाँ नहीं होती हैं
नाव के सफ़ेद पाल के डीलडौल की तरह
लम्बी कविताएँ लिखने के लिए
वे सिलाई मशीन का इस्तेमाल करते हैं
उनकी देह की क़लम
जैतून के पेड़ पर लगाई जा सकती है

वे छत पर सोते हैं
एक-एक करके टपकते हैं ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : विनोद दास