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फ़रिश्ते भी पहुँच सकते नहीं वो है मकाँ अपना / 'सहर' इश्क़ाबादी
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फ़रिश्ते भी पहुँच सकते नहीं वो है मकाँ अपना
ठिकाना ढूँडे दौर-ए-ज़मीं-ओ-आसमाँ अपना
ख़ुदा जब्बार है हर बंदा भी मजबूर ओ ताबे है
दो आलम में नज़र आया न कोई मेहरबाँ अपना
निगाह-ए-मुज़्तरिब फिर ढूँडती है किस को हर शय में
ज़मीन अपनी अज़ीज अपने ख़ुदा-ए-दो-जहाँ अपना
गुज़रने को तो गुज़रे जा रहे हैं राह-ए-हस्ती से
मगर है कारवाँ अपना न मीर-ए-कारवाँ अपना
न वो परवाज़ की कुव्वत न वो दिल की उमंग अब है
हुई मुद्दत चमन छूटे क़फस है आशियाँ अपना
पहेली खुद थी हस्ती इश्क़ ने कुछ और उलझाई
कोई ऐ ‘सेहर’ क्या समझे नहीं मैं राज़-दाँ अपना