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फ़रेब-ए-राह से ग़ाफ़िल नहीं है / महेश चंद्र 'नक्श'
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फ़रेब-ए-राह से ग़ाफ़िल नहीं है
जुनूँ गम-कर्दा-ए-मंज़िल नहीं है
मेरी ना-कामियों पर हँसने वाले
तेरे पहलू में शायद दिल नहीं है
ख़ुदा को ना-ख़ुदा कहने लगा हूँ
सफ़ीना तालिब-ए-साहिल नहीं है
तेरी बज़्म-ए-तबर में आ गया हूँ
मगर दिल को सुकूँ हासिल नहीं है
अरे उस की निगाह-ए-बे-ख़बर भी
मेरे अंजाम से ग़ाफ़िल नहीं है
मेरे ज़ौक-ए-सफ़र का पूछना क्या
निगाहों में मेरी मंज़िल नहीं है
ब-फै़ज़-ए-इश्क़ करब-ए-मर्ग से ‘नक्श’
गुजर जाना कोई मुश्किल नहीं है