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फ़र्क पड़ता है / प्रियंका गुप्ता

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क्या फ़र्क पड़ता है
कि मैंने
तुम्हें कितना प्यार किया;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम्हारी एक आवाज़ पर
मैं कितनी दूर से भागती आई;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम्हारी एक मुस्कुराहट पर
मैंने अपने कितने दर्द वारे;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम में रब को नहीं
मैंने खुद को देखा;

सच तो ये है
कि अब किसी बात से
कोई फ़र्क नहीं पड़ता;
क्योंकि
तुमको तो जाना ही था
यूँ ही हाथ छुड़ाकर,
ग़लत कहा,
हाथ छोड़कर
पर सुनो,
जाने से पहले
अपने वजूद से झाड़ पोंछ देना मुझे
फिर ग़लत
अपने वजूद से झाड़ पोंछ दूँगी तुम्हें;
क्योंकि
तुम्हें पड़े न पड़े
मुझे बहुत फ़र्क पड़ता है
तुम्हारा कुछ भी रहा मुझमें
तो खुल के साँस कैसे आएगी मुझे
आज़ादी की।