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फ़र्ज़ की किश्त / जेन्नी शबनम

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लाल पीले गुलाबी
सपने बोना चाहती थी
जिन्हें तुम्हारे साथ
उन पलों में तोडूँगी
जब सारे सपने खिल जाएँ
और जिन्दगी से हारे हुए हम
इसके बेहद ज़रूरतमंद हों !
पल-पल जिंदगी बाँटना चाहती थी
सिर्फ तुम्हारे साथ
जिन्हें तब जियूँगी
जब सारे फ़र्ज़ पूरे कर
हम थक चुके हों
और हम दूसरों के लिए
बेकाम हो चुके हों !

हर तजुर्बे बतलाना चाहती थी
ताकि समझ सकूँ दुनिया को
तुम्हारी नज़रों से
जब मुश्किल घड़ी में
कोई राह न सूझे
हार से पहले एक कोशिश कर सकूँ
जिससे जीत न पाने का मलाल न हो !

जानती हूँ
चाहने से कुछ नहीं होता
तकदीर में विफलता हो तो
न सपने पलते हैं
न ज़िंदगी सँवरती है
न ही तजुर्बे काम आते हैं !

निढ़ाल होती मेरी ज़िंदगी
फ़र्ज़ अदा करने के क़र्ज़ में
डूबती जा रही है
और अपनी सारी चाहतों से
फ़र्ज़ की किश्त
मैं तन्हा चुका रही हूँ !

(सितम्बर 18, 2012)