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फ़र्ज़ की बंदिश में दिल ये प्यार से मज़बूर है / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
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फ़र्ज़ की बंदिश में दिल ये प्यार से मज़बूर है
या कोई पंछी कफ़स में ज़िंदगी से दूर है
मन उधर ले जाए है तो ज़हन खीचें है इधर
तन- मुसाफ़िर इसलिए हर आस्ताँ से दूर है
करना पडता और कुछ, दिल की रज़ा है और कुछ
हर तमन्ना किस कदर हालात से मज़बूर है
कुत्ते की दुम की तरह टेढ़ा रहा उस का मिज़ाज
तेरी हर कोशिश दिवाने देख थक कर चूर है
अपने हाथों खुद अभी पर बांध कर छोड़ा परिन्द
अब ये पूछे हो उसे, क्यूँ उडने से माज़ूर<ref>असमर्थ</ref> है
अब तुम्हे क्या हो गया, तुम ने अभी था ये कहा
आप की तो शर्त हर मंज़ूर है, मंज़ूर है
अय ’यक़ीन’ अब तेरा चर्चा है सारे शहर में
अब तेरा दीवानापन चारों तरफ़ मशहूर है
शब्दार्थ
<references/>